Wednesday, November 2, 2011

जस्बाती मन

आज तुम्हारा सर्वस्व भीगा पड़ा है
ऐसे तुम कहती हो
मायूसी इतनी छाई है
जैसे मन की आँखें रोई हो
इन आँसुयों की कीमत जो न जाने
उन्हें क्यों दिखलाती हो
इनका मोल तो जस्बातो से है
उन्हें तुम संजोय लो
देखो कितनी इनायत है
इन जस्बाती बातो में
रूह से उतर कर यह
गहराइयों की बुलन्दियो को छूते है
सारे गिले शिकवे निचोड़कर
उस खालीपन को छोड़कर
बस पूर्ण हो जाओ फिर से
अपने अस्तित्व से जुड़कर

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