Wednesday, November 2, 2011

रूकसत

यूँ जिंदगी से रूठ के तुम कहाँ चल दिए
अपनी मंजिल को दूंडने बाहार दुनिया में?
मैं तो थी जन्नत तुम्हारी- तुम ही जताते रहे
फिर क्यों इन्ही बाहों को छोड़ के अन्जान बन गए !
इतने करीब थे की खुद को अलग समझे
अब रुक्सत की हम्ही को हम्हारे महफिल से!
नाज़ था जिनको हमपे वही मूँह मोड़ लिए,
खुदा राह दिखा मेरे बहके हुए बदनसीब को
नादान है मगर फिर भी मेरे लिए अज़ीज़ वह
दुया करू की ज़िन्दगी लौट आये उसकी
मुझमे नहीं तो सही, खुशियाँ उसके दामन में भर जाए
कोई और बहार बनके आये ज़िन्दगी में उसकी
बस रह गयी तो मेरे पास वह प्यार भरी ज़िन्दगी
जिसकी रंगत किसी हाल पे ढलने पाए कभी

क्योंकि यह तो है बड़ी अनोखी अनमोल प्रीत

सदियों से जिसकी लोग गाते है अमर गीत
और मीरा जैसे लीन हो जाती है
उस पावन अनुपम मधुर प्रेम सागर में ...

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