Friday, August 29, 2014

में उस जहां को ढूंढ़ती हूँ



















में जिस जहां को ढूंढ़ती हूँ, क्या तुम उस जहां  के नहीं 
वाकई में तुम वहाँ कही नहीं - हैं तो सिर्फ तुम्हारी परछाई  
जिसके साये में छाँव सा सुकून हैं - और कही अपना स्वरुप 

जिसे तुम अँधेरा कहते हो - उसी काली रात में, मुझे जगमगाते सितारें दीखते हैं 
जो सुबह होते ही आँखों से ओझल हो जाते हैं- पर होते तो हैं 
अपने होने का एहसास दे जाते हैं - मीठी सी ख़्वाब  बनकर 



हकीकत नहीं हैं वह, फिर भी कहीं तुम्हारे वजूद से जुड़ी हैं। 
तुम्हारी आधार पे हैं, पर तुमपे अंत नहीं।
तुमसे काफ़ी जुदा हैं वह, पर बेनक़ाब भी नही। 
कहीं  मेरी  कल्पना की परिकल्पना तो नहीं?

कहीं बहुत सारे सिमटे हुए ख्वाइशों के यादे दे जाते हैं - 
में उस जहां को ढूंढ़ती हूँ - जहाँ मेरे ख्वाब मुझसे आके मिलते हैं। 



No comments:

Post a Comment