Wednesday, July 15, 2020

गर जान लिया होता


गर जान लिया होता
ज़िन्दगी का फलसफा 


यूँही भटकते  न रेत  पर
समुन्दर पार कर लिया होता

कुछ इस कदर कश्मकश थी
ज़िन्दगी लम्बी , लम्हे कुछ कम थी

तकदीरो के खेल में
आँखे कुछ नम थी

गमो की परवाह नहीं
यह तो ख्वाईशो की जंग थी

बुलंद इरादे नेक थी
पर चाहत ज़रा खुदगर्ज थी

 खैरियत की बात नहीं
 सुकून की आस थी

मुकद्दमों के कचहरों में
जब फैसले  की  घड़ी  आयी
ज़ुबाँ  पे अल्फ़ाज़ रुकी
आबरूह शर्म से झुकी

नसीबो की मात थी
संगदिलों  की शातिर  चाल थी
अपनों का साथ न छूटता तो
अपनी कुरबत की सौगाद  थी

काश हमने पहचान लिया होता
 यूँही खुलेआम बैर न लिया होता
गैरो की कमी नहीं इस जहाँ में
अपनों को गले से लगा लिया होता

भटकते रह गए फ़कीरो की तरह
जान के अनजान न मान लिया होता
अब तो यह आलम है
 ज़िन्दगी का सफरनामा में
हमने ये जान लिया
  गुज़रता हुआ वक़्त लौट आता है
अपनों के खयालो में








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