Sunday, August 8, 2021

शून्यता से परिपूर्णता

 शून्यता से परिपूर्णता 

 

इस जीवन के दौरान हम कितने ही ऐसे पल खो बैठते है 

जो हमें आनंद में रख सकती है।  

यह नादान मन ही तो हैं जो हमेशा विचलित रहता है 

कही टिकके रहता  नहीं 

एक इच्छा से दूसरी और फिर न जाने 

कितने ऐसे ख्वाईशों के पीछे हमे दौड़ाती है 

 

मन की सुने या बुद्धि  की ?

कभी ऐसी भी दुविधा में पड़ जाते हैं 

मति भ्रष्ट हो जाना को आम बात समझकर हम टाल देते है 

मगर ऐसा होता ही क्यों जब हम्हारी बुद्धि हमें सही राह दिखाती हैं 

इसका मतलब कभी किसी कारणवश

 हम जाने अंजाने  में गलत काम में उलझ जाते हैं 

जान बूझकर भी हमसे गलती होती है 

उस समय ये कहकर  टाल देते हैं कि 

मन वश में नहीं रहता। 

मन की सुनती तो अनर्थ होता और

न सुनती तो जीवन में मज़ा  नहीं रह जाता 

 

फिर द्वन्द! यह कैसी प्रतिकूल परिस्थितियां आ जाती हैं 

जो सही गलत को भी पहेली के जैसे पूंछती 

 

इतना तो तय हैं की हम्हें पूर्ण ज्ञान नहीं है 

सत्य की पहचान नहीं है 

तो हम इस विशाल ज्ञान सागर में डूबकी लगाते  है 

थोड़ा सा ज्ञान का झलक केवल मिलता 

तो और जानने की इच्छा से और गहरी छलांग लगाते है 

इसी तरह जो जहा संतुष्ट होता जाता है 

उसकी ज्ञान की सीमा बनती जाती है 

और जो सदैव आग्रह रखता है और जानने की

उसकी पहुँच उतनी गहरी होती जाती है 

यह आग्रह भी तभी आती है जब हम यह जानने लगते है 

कि इस अथा ज्ञान की महासागर में कोई अंत नहीं है 

अनंत हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते 

तो ज्ञान में जितने हम मन को साँधते जाएंगे 

उतना ही यह जान पड़ेगा की हमें  सच में कुछ नहीं आता 

ज्ञान के विशालता के समक्ष !

तो बात आती है कौन ज्ञानी और कौन अज्ञानी 

दरअसल जिसकी जितनी बड़ी पात्रता 

उसकी उतनी बड़ी पात्र  इस ज्ञान को धारण करने के लिए

पात्रता से मतलब उसकी काबिलियत या उसकी क्षमता-

 ज्ञान को समझने के लिए 

बीना त्यारी के कुछ भी  प्राप्त नहीं हो सकता। 

और इस ज्ञान की वर्षा तभी हो पायेगी जब हम अपने अहम् को मिटा दे 

अहम इस बात का कि हमें कुछ भी आता नहीं  हैं 

जिस मुहूर्त हम ये मान ले की हम खुद्र, है इस ज्ञान के महासागर के सामने 

तो ही हम इस ज्ञान को और जान पाते हैं 

हम्हारी खोज जारी रहती हैं और हम कभी भी ज्ञान के मार्ग से नहीं भटकते 

हम्हारी यात्रा ज्ञान के मार्ग में शून्यता से शुरू होती है 

जब हम अज्ञात होते है और

यात्रा के दौरान जितनी सीख मिलती हैं हम और परिपूर्ण होते चले जाते है 

फिर पूर्णतः रूप से जब ये जान पड़ता है 

की इस सीख का कोई अंत नहीं तो हम स्वतः खाली हो जाते है और 

शुन्य की तरफ ही बढ़ते है कि अभी बहुत कुछ जानना बाकी है 

हम्हारी यात्रा पूरी तरह से तब पूरी होती है 

जब महाज्ञान मिलता है की 

शून्यता ही हम्हें पूर्णता की एहसास दिलाती हैं। 

बिलकुल उसी तरह जैसे हमने शुरू किया था अज्ञानता से-शुन्य से

परिपूर्ण होने के लिए, आखिर ये जान लेते है की 

अंतहीन या अनंत को खोजने के लिए ज्ञान से भी परे जाना है 

बिलकुल खाली हो जाना है, शुन्य में विलीन होना हैं 

शून्यता में ही आखिर परिपूर्णता हैं। 

 


 

 


 

 

 





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