Sunday, January 23, 2022

इच्छाएँ

  इच्छाएँ

            इच्छाएँ और अभिलाषाएं में कितना अंतर हैं? एक तरह से देखा जाए तो अभिलाषा को ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है क्यूंकि इसकी पहुँच से हम्हारे बड़ी बड़ी उपलब्धियां संभव हैं। जबकि इच्छाएं तो अनगिनत है।  पल एक इच्छा जगती है तो दूसरे पल दूसरी।  शायद इसी वजह से हम इसको एहमियत नहीं देते क्युकी यह निरंतर बदलती रहति  हैं और स्थिर नहीं।  

            इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती न ही कोई दिशा।  बस मन को भा  जाती है पल भर के लिए, कभी तो मन को भड़काति भी है इस हद तक की मन बेचैन हो उठता है। स्पष्ट शब्दों में इच्छाएं रखना कहा तक जाएज़ है इसकी पुष्टि तभी हो पायेगी जब हम इन इच्छाओं के पीछे भावनाओं को गहराई से समझ पाए। 

               कहते है कोई भी इच्छा इसीलिए जागती है क्यूंकि हम किसी दौर से गुज़र रहे होते है जो  इन इच्छाओं की कारण  बनती है और जितना हम इन इच्छाओं पे ध्यान देते है उतनी इनकी सिंचाई होती है। कभी तो हम किसी से इतनी मुग्ध हो जाते है तो भी वो हुनर या वह चीज़ पाने की इच्छा रखते है।  हमारी  ध्यान आकर्षण करने वाली कोई भी बात हमें उस चीज़ पर गौर करने को मजबूर करता है और हम में आग्रह बढ़ती है -एक आह् सी उठती है काश ऐसा हो पाता।  फिर शुरू होती है  जद्दो जिहद  उसको हासिल करने में या उस मुकाम तक पहुँचने में। यहाँ तक  देखा जाए तो कोई हर्ज़ नहीं इच्छाओं को पनाह देने का।  मुश्किल तो तब आती है जब यही  इच्छाएं थोड़े थोड़े करके इतनी बढ़ जाती है की हमारे  जीवन के लिए कहाँ तक यह हितकारी होगी यह समझ के परे हो जाती है।  यानी की ये इच्छाएं हमारे ऊपर इस कदर हाँवि हो जाती है कि भले से ज्यादा हमें या और किसीको नुक्सान पहुंचा सकते है।  इच्छाओं को भी नैतिकताओं के दायरे में रखकर अगर बारीकी से जांचा जाए तो हम इतना नज़र तो रख सकते है की कौनसी इच्छाओं को पनपने का मौका दिया जाना चाहिए और कौनसे को विसर्जन।  

            इस विषय पर चर्चा करना मतलब यह मान लेना कि इच्छाएं हमारे मन की उपज है।  एक प्राकृतिक अभिन्न अंग है हम्हारे अस्तित्व का - जो किसी रूप से अनदेखा नहीं किया जा सकता न ही काबू से बाहर होने दिया जा सकता है।  फिर शाश्त्रो में क्यों कहा जाता है की इन इच्छाओं को समर्पण करने को  मुक्ति के मार्ग में चलने के लिए।  मूल तौड़ पे इच्छायों  के पूर्ति से सुख तो आता है पर वह क्षणिक भर के लिए मात्र होती है।  एक इच्छा पूरी होने से पहले दूसरी इच्छा के तरफ मन दौड़ती है जो कभी न पूरी होने वाली ख्वाईश  के तरह हमे दौड़ाती रहती है झूठे उम्मीद के बल पर ।  अंत में सुख से ज्यादा दुःख का ही अनुभूति होती है दुर्भाग्यवशत।  क्या यह बिडंबना नहीं कि जिसे हम सुख की आशा में हासिल करना चाहते है अंत में वही दुःख का कारण बने तो किस बात की यह झूठी संघर्ष  !   फिर तो यह जायज़ है की हम इच्छाओं के जगह मन की शांति की और रुख बदले जो अंत में सुखद हो और इसी ज्ञान से जीवन को एक नई दिशा दे ।

            अगर इच्छाओं के पीछे भावनाओं पे आते है तो भी कोई हर्ज़ नहीं की हम्हारे नियत साफ़ होती है उसपे कोई दोष नहीं।  दोष है तो उसकी हद से बाहर जाने की ! अगर हम इतने भावुक हो जाए कि हमें  सच्चाई दिखना बंद हो जाए  तो भी गलत है।  किसी भी तरह का जोश अच्छा है कुछ कर दिखाने  के लिए या कुछ हासिल करने के लिए, पर संतुलन रखना भी ज़रूरी है।  इसी स्थिरता के आधार पर महान कार्य संभव हो पाया है बिना कोई दुष्प्रभाव के ।    

                अंत में यह ज्ञात होता है की इच्छाएं अपनी जगह स्वाभाविक है पर  हम्हारी समझ श्रेष्ठ है इच्छाओं से बढ़कर जो हमे  इसकी माया में जकरने नहीं देती और कुशलता से हम सच्चाई और शांति के सही मार्ग पे चल सकते है।       

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