Sunday, May 25, 2025

ख्वाशियों के दौर

 ऊँची अभिलाषाओं के दम पे 

जब भी लम्बी उड़ान भड़ती हूँ 

बड़ी बारीकी से,

 खुद को जान पाती हूँ | 


हज़ारों  ख्वाईशें, हज़ारों उम्मीदेँ लेकर 

अपने जीवन को संजोती हूँ 

मानो कल की ही बात है 

परियों  के देश में

अब भी सपने बुनती हूँ 

 

संतोष तो है, पर अंत नहीं ख्वाईशों का  

एक पूरी होने से पहले दूसरी की मांग शुरू हो जाती हैं 

मानो अंतहीन रेल के पटरी जैसे 

यह सिलसिला जारी है | 


इस ख्वाशियों के दौर में 

खुद को गुमसुम, कमसिन  पाती हूँ 

एक नए सिरे से

जब  अपनी इच्छाओं को टटोलती हूँ 

तो अपने वजूद से जुदा होकर

खुद में सीमित रह जाती हूँ  | 


चाहे कितनी बातें करलो, 

मनको सेहलाके चुप्पी भरलो 

दिल तो नासमझ है, दिल का करार भर लो 


 मन की सुनना जायज़ है  कुछ हद तक 

आखिर ईमान की कदर करना 

अपनी सीमाओं के भीतर

 शालीनता को करार रखना 

अपने मौलिकता के देहलीज़ को 

भूल  के भी न पार करना 

जिंदगी को खुल के जीना 

हर पल में रहके जीवन संजोना 

न कल की फ़िक्र, न कोई भ्रम

मौत आए तो भी क्या गम 

यह चोला तो उतर ही जाना है 

अपने अंतरात्मा से परिचय जो  हुआ 

अब काहे का डर  


अपनी अंतिम यात्रा तक 

ब्रह्माण्ड में घुल जाने तक  

मुझमे मैं  छूट जाने तक

आओ,  हम तुम यह दूरी  तय करले 

अनंत की और रुख बदल ले !

 


 

 







No comments:

Post a Comment