अग्नि जैसे पावन नारी
पवन जैसे मुक्त
निर्मल मन है, कोमल काया
जल की प्रतिस्वरूप
प्रकृति जैसे मंगलदायिनी
खज़ाने से भी गुप्त
नारी से ही बढ़ती शोभा
सर्व गुण सम्पूर्ण
पुत्र के अभिलाषा में
पुत्री हो रही लुप्त
यह कैसा अन्याय हैं
सब बैठे है चुप
बचपन में पिता परम थे
सधवा में पति परमेश्वर
बुढापे में भी पुत्र के आधीन
क्या करे अबला नारी
हर एक ने अधिकार जताया
सर आँखों पे किया स्वीकार
नारी की जब बारी आई
छीन लिया उसका आत्म सम्मान
खड़ा कराया कठ गढ़े में
पूछे कई सवाल
अपनी निष्ठा प्रतिष्ठा के
देने पड़े प्रमाण
कभी दासी, कभी महारानी
हर युग में साथ निभाती
मर्यादा के देहलीज़ में सिमटती
असूलों के सीमा में बंधती
धर्म के नाम पे नीलाम हुई
दरिंदों के ह्वाज़ की शिकार
हर क्षण लूटती, कटती, बिखरती
जिस्म ज़ख्म से हुए जार जार
मान नहीं, पर अभिमान बहुत हैं
नारी की धीरज अपरम्पार
अंतरात्मा की शक्ति के बल पर
नारी ने किया खुद की उद्धार
No comments:
Post a Comment