Thursday, August 29, 2013

हाँ, माँ ने सच ही कहाँ हैं

 माँ ने सच ही कहा हैं
ये  जहाँ है परियों  का मेला

इसमें न जाने कितने रंग
खुदा ने बिखेरे

ख़ुशी के, तो कभी गम के
आखिर हैं तो चंद  दिनों का खेला

 खुदा के बन्दे हो तुम
खुद खुदा से जाके पूंछो
नहीं रहेगा कोई शिकवा न गिला
जब सुनोगे तुम खुदा को

खुदा  को शहर के भीड़ में न ढूँढो
महरूम रह जायोगे
खुदा तो बसते हैं दिलो में
पाक जगह ही पायोगे

उन्हें खुली आँखों से न देख पाओगे
बंद आँखों में ही करीब पाओगे
और माँ के खूबसूरत पहेली का
 राज़ जान पाओगे

खुदा ही बस एक बरकरार है
सच्चाई के मसीहा
बाकी तो हैं दो चार दिनों का
हम्हें  इनसे क्या लेना

माँ ने जिस दुनिया का ज़िक्र किया हैं
वह दुनिया क्या खूब हैं
बस आँखों से दुनियादारी का
पर्दा हटा दो-
यह दुनिया बहुत हसीं हैं

इसे ख्वाब सा रहने दो
पड़ीयों का मेला  यही बसा हैं
माँ के आँचल सा सकुन हैं इसमें
कुछ देर ही सही
इसमें अपने गम को भुला दो
 और झोली में खुशियाँ भर लो
हर उस लम्हा को चुराके
जहाँ अपनापन मिलता हो
और अपनी कला से
हसीन रंग भर दो

हाँ, माँ ने सच ही कहाँ हैं
यह जहान पड़ीयों का मेला  हैं
दुनिया के आँखों से नहीं
माँ के कोमल छाव में रहकर
अपने मन के आँखों से देखो
कला के दुनिया में
क्या कुछ नहीं हैं

यह दुनिया कितनी हसीं हैं
बस एक नज़र की कमी हैं

उस नज़र की छाव में
हर नज़ारा खूबसुरत हैं

जो भी दुनिया में होता हैं - होने दो
पर अपनी अन्दर के दुनिया को
इसमें बिखरने न दो

यह हैं इक नई सुबह

न कोई आँच आने दो
न कोई बददुया
हाँ यह मुमकिन हैं
गर तुम्हे हैं यह पता

बाहर की दुनिया
अनजाना सा शहर हैं
पर मन की दुनिया
परम आनंद हैं
पड़ीयों का देश जैसा
मन की छाव हैं !!!















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