Wednesday, February 2, 2011

बचपन

वह हम्हारि बचपन की बाते
फिर से याद ताज़ा कर लौटे
कितनी मौजे कितनी अठखेलियाँ
लेती थी हर दिन, हर राते

न कोई सीमा, न कोई बंदिश
अपने सपनो की सौगादे
खुला आसमान ऊँची उड़ाने
लेती थी आज़ाद मन से

हर फरमाईश पूरा करते
माँ की ममता भरा प्यार
पिता के छत्रछाया में
अपनी दुनिया थी ख़ुशहाल

भाई बहन अपनी थी दुनिया
अजब खेल रचाते थे
कभी ख़ुशी में रो पड़ते
तो कभी गम में हंसाते थे

ऐसी निराली अपने दिन थे
वह बचपन की बातें
ख्वाईश थी कुछ कर दिखाने की
अरमानो के सपने थे

कुछ बदमाशी, कुछ नादानी
गलतीयां करते नहीं डरते थे
थोड़े गिड़ते , थोड़े संभलते
आदर्शो पे चलते थे

आज भी जब वह पल याद आते है
ताज़गी दिन बचपन के लौताते
वह हम्हारी बचपन की बातें
फिर से खुशियाँ लाती हैं

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